History

संक्षिप्त इतिहास

राठौरों का इतिहास

राठौरों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अलग-अलग विद्वानों के अलग-अलग मत हैं किन्तु इस बात से सभी विद्वान सहमत हैं कि राठौर सेतरामजी के पुत्र सीहाजी के वंशज हैं| क्षत्रिय दर्शन विशेषांक [क्षत्रिय राजवंश] पृष्ठ 86 में इतिहासकार श्री ओझा जी का मत उल्लेखित है,उन्होंने लिखा है कि कन्नौज का राजा जयचंद्र गहड़वाल था, किन्तु राजस्थान के राठौड़ों ने अपने को गहड़वाल नहीं माना है और न ही उनके लेखों में गहड़वाल लिखा मिलता है,गहड़वाल,राष्ट्रवरों [राठौड़ों] कि खाँप प्रतीत होती है| संभवतःअपने क्षेत्र कन्नौज से दूर राजस्थान में आने के कारण उपखाँप गहड़वाल नाम से न जानी जाकर प्रसिद्द खाँप राष्ट्रवर ,राठौड़,कमधज अदि नाम से पुकारे जाने लगे हों,उदाहरणतया राजस्थान से बाहर जाकर यहाँ के मेड़तिया अपनी पहचान दूसरों को राठौड़ कहकर ही जताते हैं,इससे मेड़तिया या राठौड़ अलग -अलग तो नहीं हुए | ऐसे कई शिलालेख राजस्थान में मिले हैं जिसमें प्रधान खाँप न लिखकर उपखाँप को ही अंकित किया गया है| क्षत्रिय दर्शन [क्षत्रिय राजवंश ] के अनुसार पंचवेर की छतरीऔर पाटोदा की देवली के शिलालेखों में उपखाँप ही है, मूल खाँप नहीं| कन्नौज के राठोड़ों ने अपनी उपखाँप गहड़वाल अंकित करवा दी किन्तु उनकी मूल खाँप राठौड़ ही थी| अतः सीहाजी कन्नौज से बाहर दूर राजस्थान में आकर राज्य जमाया तो अपने को स्थानीय शब्द गहड़वाल से सम्बोधन न कर मूल खाँप राठौड़ शब्द का ही प्रचलन किया| जयचंद प्रबंध में जयचंद को राष्ट्रकूटिया भी लिखा गया है| इससे माना जा सकता है कि वह राष्ट्रकूटिया राठौड़ था| लगभग 400 वर्ष इस वंश ने  भारत पर राज्य किया है। क्षत्रिय दर्शन विशेषांक [क्षत्रिय राजवंश ] के अनुसार,श्री गोविंदचंद्र के उत्तराधिकारी श्रीविजयचन्द्र ने वि.1211 से 1226 तक शासन किया| श्री विजयचन्द्र के पश्चात् उनके पुत्र श्री जयचंद्र गद्दी पर बैठे| उन्होंने वि. 1227 से 1251 तक शासन किया| श्री पृथ्वीराज चौहान ने जब जैजाकभुक्ति के शासक परमर्दिन पर आक्रमण किया तब जयचंद्र ने परमर्दिन का साथ दिया| चौहानों ने गहड़वालों के कुछ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था| अतः चौहान-गहड़वालों में शत्रुता होगई| यह शत्रुता पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता हरण पर और अधिक हो गयी| यही कारण था कि वि.1249 ई.1192 में जब मोहम्मद गौरी द्वारा पृथ्वीराज पर हमला किया गया तब जयचंद्र चुप बैठे रहे| पृथ्वीराज की पराजय के बाद, लगभग पचास हज़ार सैनिकों को कुतुबुद्दीन के नेतृत्व में भेजा गया जिससे वि.1251, ई .1194 में मोहम्मद गौरी का कन्नौज पर आक्रमण होगया| जयचंद एक विशाल सेना लेकर सुल्तान की सेना से मुकाबले के लिए चला| चंदवार नमक स्थान पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जयचंद हाथी पर सवार था| कुतुबद्दीन का एक तीर उसके सीने पर लगा वहीं जयचंद की मृत्यु हो गयी| इस प्रकार गहड़वाल साम्राज्य समाप्त हुआ| उत्तर भारत में कुश वंश की राजधानी कन्नौज के अंतिम राजा जयचन्द के पुत्र सीहा जी ने अपने पितृ राज्य से भागकर मारवाड़ के मरू देश में आश्रय लिया इस देश में पडिहारों का एक सुन्दर मण्डोर नामक नगर था, उसमें अपने राठौर राज्य की स्थापना की। देखते ही देखते उत्तम राज्य का विशाल मारवाड़ राज्य बन गया। राठौर वीर सीहाजी की सन्तान विपुल बल संग्रह करके महा पराक्रमशील बन गई।

कालान्तर जब दिल्ली पर मुगलों का शासन हुआ तो मुगलों के महान सम्राट अकबर ने तत्कालीन राजपूतों में जो  लड़वैये राठौर थे, उनसे मित्रता स्थापित की, उनको बड़े बड़े प्रलोभन एवं उपाधियाँ देकर अपनी सेना में लगभग 6 लाख राठौर वीरों की भरती की। अकबर के पौत्र शाहजहां की सेना में ही वीर अमरसिंह जी थे, उस काल में कहा जाता है कि लगभग एक लाख राठौरो ने  अपना रक्त देकर मुगल शहंशाह की सहायता की थी। इनकी वीरता के विरद् आज भी राजस्थान के भाट लाोग गाते हैं-

बलहट बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़|
हाड़ा बंका गाड्या, रण बंका राठौड़ ||
बृज देशी चन्दन बड़ा,गेरू पहाड़ा गौड़ |
गरुण खड़ा लंका गढ़ा, राजकुला राठौड़||

       स्वधर्म परायण मीराबाई का जन्म राठौर वंश में ही हुआ था, जिनकी कृष्ण भक्ति के गीत भारत के सभी प्रान्तों में गाये जाते हैं। अन्य मत यह भी है कि देवदास के धार्मिक मापदण्डों पर खरा उतरने पर ढूंढी राज गणेश को कन्नौज जाना पड़ा। ‘कन्नौज‘ उस समय राष्ट्रीय देश था, वे वहां के राजा हुए और उनके वंशज राठौर कहलाये। इसी वंश में आगे राजा जयचंद गहरवार (राठौर) प्रसिद्ध हुऐ हैं। क्षत्रियों के 36 कुलों में राठौर की गणना की जाती है। सबसे पहले विक्रम संवत 1205 की किल्हण की ”राजतरंगिणी ”में क्षत्रियों के 36 कुलों का उल्लेख मिलता है| यहाँ
”पृथ्वीराज रासो ” की उन पंक्तियों का उल्लेख किया जा रहा है जिनमें उन 36 कुलों के नाम गिनाये गए हैं –

रवि ससि जादव वंस ककटस्थ परमार सदावर |
चाहुवान   चालुक्य   छन्द    सिलार अभीयर ||
दोयमत मकवान गुरुअ गोहिल गोहिलपुत |
चापोत्कट  परिहार  राव   राठौर    रोसजुत ||
देवरा टांक सैंधव अणिग योतिक प्रतिहार दघिषत |
कारटपाल कोटपाल हूल हरित गोरकला[मा] ष मट||
धन [धान्य] पालक निकुंभवार, राजपाल कविनीस |
कालच्छुरकै आदि दे बरने बंस छतीस ||”

ये 36 कुल सूर्यवंश, चन्द्रवंश एवं अन्य वंशों में विभक्त हैं। महाभारत में वर्णित सृष्टि उत्पत्ति के प्रसंग में वैशम्पायन ने राजा जन्मेजय से भारतीयों के गोत्रों, जो ऋषियों के नाम पर निर्धारित थे, का बखान किया था। ‘राठौर’ नाम किसी ऋषि के नाम पर न होने से वह गोत्र नहीं है, क्षत्रिय जाति का ही सूचक है।‘‘राठौर या राठौड़,” के इतिहास के शोध से स्पष्ट हुआ है कि बौद्ध काल के पूर्व राष्ट्रकूट का दक्षिण भारत में राज था। इतिहासकार विश्वेश्वर नाथ रेउ के अनुसार दक्षिण में जब चालुक्यों का वर्चस्व बढ़ा तब राष्ट्रकूट के अंतिम राजा कर्क राज ने दक्षिण छोड़कर उत्तर में कन्नौज के परिहार राजाओं की शरण ली। परिहारों की शक्ति क्षीण होने के बाद जयचंद वंश ने कन्नौज में राठौर राज स्थापित किया। तब से राठौर नाम को मान्यता प्राप्त है। अतः राठौर व राठौड़ में कोई विभेद नहीं है। क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत अनेक जातियों का जन्म हुआ। इन जातियों में ”राठौर”जाति प्रमुख है क्योकि इसका बहुत प्राचीन एवं विशाल इतिहास है। इस जाति में अनेक राजा और महाराजा हुऐ जो बडे शक्तिशाली एवं प्रतापी थे। ये गहरवार, राष्ट्रवर, राष्ट्रकूट एवं राष्ट्रिक नामों से जाने गये। इस जाति के लोग विशुघ्द क्षत्रिय हैं।

भारतीय इतिहास के मध्य युग में इस जाति को बडे संघर्षों का सामना करना पडा। सूरसेन, महाराज गजसिंह, जयमल, वीर पन्ना, अमरसिंह जसवंत सिंह, दुर्गादास राठौर आदि अनेक वीरों  के नेतृत्व में राठौरों ने विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरूघ्द संघर्ष करकें हिन्दूओं की रक्षा में प्राणों की आहुतियाँ दे दी। अतः उन शासकों ने राठौरों को प्रमुख शत्रु माना और उनके वीरों  के अभाव में उन पर विभिन्न प्रकार से अत्याचार करने  लगे। अपनी रक्षा के लिये राठौर यहाँ-वहाँ भागने लगे कुछ राठौरों का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान भी बनाया गया या कत्ल कर दिया गया आज भी कई मुसलमान अपनें नाम के साथ राठौर लिखते हैं

यह एक सुस्थापित एतिहासिक तथ्य है कि राठौर, मुगलों के दमन च्रक की चपेट के सताये हुऐ “माइग्रेटेड” भी हैं। ”गजटियर आफ इण्डिया” 1206 से 1761 ए.डी. मुगल काल खण्ड में मुगल सल्तनत की दमनकारी नीति के चलते सामाजिक उथल-पुथल और पश्चात्वर्ती प्रभावों के अंग्रेजी संस्करण के इतिहास से सम्बंधित पंक्तियों को यहां हिन्दी अनुवाद के साथ, श्रंखलाबद्ध उद्धरण दिया गया है, जो राठौरों के क्षत्रिय होने का एकीकृत समाधान हैं।

          “In Feb.A.D.1679 the emperor learnt that two posthumous sons have been born to Raja Jaswant Singh of Marwar, and he was called upon to decide the question of succession. In June A.D.1679 ,Jaswant Singh’s  family arrived at Delhi with only one child, the other having expired.According to commonly accepted version,before deciding the infant’s clain to Gaddi,the emperor ordered that he should be brought up in the impereal harem. This made the Rathores suspicious. Perheps,the rumour that the emperor intended to convert the infant in to a Muslim irritated the Rajputs further. So the fire of bitterness was kindled and this was how the Rajput war commenced”

”…………..  फरवरी ई.पू. 1679 में मुगल शासक औरंगजेब की जानकारी में आया  कि मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह के मरणोपरांत उनके दो पुत्रों ने जन्म लिया है। अतः उनके उत्तराधिकारी का फैसला करना अपेक्षित किया गया। जून ई.पू .1679 में जसवंतसिंह का परिवार एक बच्चे के साथ दिल्ली पहुंचा क्योंकि दूसरे बच्चे की मृत्यु हो चुकी थी। संयुक्त स्वीकृत वृतान्त के अनुसार, गद्दी के लिये शिशु की दावेदारी तय करने के पूर्व शासक ने आज्ञा दी कि  शिशु का  लालन-पालन शाही जनानखाने में किया जाना चाहिये। इससे राठौरों को शंका हुई कि शिशु को संभवतः मुसलमान बनाने का औरंगजेब का इरादा है। इस शंका ने राजपूतों को और अधिक उत्तेजित और आक्रोशित किया। कटुता की यह सुलगी आग राजपूत युद्ध के सूत्रपात का कारण बनी।”

   “—————- The kshatriya has lost a large part of their domination, specially in the north, but most of the independant Rajas and Jamindars belonged the caste. They were a proud and warlike classes. They rode on horses, carried arms and dressed in white. They were relunctant in paying Government dues and fought against the Sultans for safeguarding their interests, position and prestige.”

‘‘ —————- क्षत्रिय, अपनी प्रभुता/प्रधानता बहुत कुछ खो चुके थे, खासतौर से उत्तर में, किन्तु अधिकांश स्वतंत्र राजा और जमींदार इस जाति के थे। वे स्वाभिमानी थे, युद्ध प्रिय थे। घोड़ों पर सवारी करते थे। शस्त्र लेकर चलते थे और सफेद बाना (पोशाक) पहनते थे। राज्य की बकाया राशि देने में वे इच्छुक नहीं रहते थे और इसलिये अपने हितों, हैसियत और प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लिये वे सुल्तानों से लड़ा करते थे। —-‘‘

“—————- In the case of immigrants and their descendants, old time differeces and prejudice persisted. Among the converts, there was a perceptible difficulty in getting out of the caste structure and caste mentality, despite change in faith. The Rajput converts retained their caste nomenclature and family sur-names, and refrained from marrying in to other Muslim families.”

‘‘—————- अप्रवासी/पलायकों (दूसरे देश से आकर बसे) और उनके वंशजों के मामलों में पूर्व कालीन जैसे भेदभाव की स्थितियाँ बरकरार रही। श्रद्धा व निष्ठा बदलने के बावजूद भी परिवर्तकों (जाति परिवर्तन करने वालों) को प्राचीन जाति संरचना और जाति मनोवृत्ति से बाहर निकलना प्रत्यक्षशः कठिन था। राजपूत परिवर्तकों ने अपनी जाति की नामावली/नामकरण पद्धति और पारिवारिक उप-नामों को परिवर्तन पूर्व की मान्यता के अनुकूल व्यवहार में बनाये रखा और मुस्लिम परिवारों में विवाह सम्बन्ध बनाने से अपने को दूर रखा। उच्चतर हिन्दू जातियों (क्षत्रिय जाति भी) के परिवर्तकों और अप्रवासी अनुवंश के वंशजों ने उच्चतर सामाजिक प्रतिष्ठा का उपभोग किया, जिसे वे पोषित व संधारित करते रहे।”

पाकिस्तान में राजपूत मुसलमान सभा गठित हुई थी। फज़ल इकबाल राठौर पाकिस्तानी राजदूत थे जो दिल्ली आये थे (दैनिक जागरण कानपुर 25 जनवरी 1971 ई.) और  मोहम्मद एहसान राठौर पाकिस्तानी राष्ट्रीय बैंक सोसायटी के प्रवक्ता थे (दैनिक जागरण कानपुर 2 जनवरी 1981 ई.)। अतः बलात् मुसलमान धर्म अपनाने के बावजूद भी इन्होंने स्वंय को राठौर बनाये रखा हैं।

मनु ने भी व्यवस्था दी है कि पेशा बदलने के साथ, जन्म-जाति बदलती नहीं है। यह आज भी सुदृढ़तापूर्वक व्यवहार में है। ‘राठौर’ जाति बुनियादी है। 1206 से 1761 ए.डी.में मुगल काल खण्ड के उक्त उद्धरित सामाजिक व्यवस्था व सामाजिक जीवन के इतिहास से हम पाते हैं कि ‘राठौर’ सिर्फ और सिर्फ राठौर एक ही जाति रही है जो क्षत्रिय वर्ण का ही एक अभिन्न अंग है। इस नाम की दूसरी अन्य कोई जाति कभी अस्तित्व में होने का इतिहास में कोई प्रमाण नहीं है। परिस्थितियोंवश प्राणों की रक्षा के लिये इन्हें अपना पेशा छोड़ने को भी विवश होना पड़ा था जो पेशा परिस्थितिवश अपनी असलियत को छिपाने के लिये अख्तयार करना पड़ा था वह ‘राठौर’ सूचक नहीं था। यहां गौर तलब तथ्य यह है कि राठौरों ने जाति-धर्म परिवर्तित नहीं किया था बल्कि पेशा परिवर्तित किया था। अतः प्रचलित मान्यताओं के अनुसार गैर राठौर संम्बंधित पेशा अख्तयार करने के साथ व्यवसायिक जातीय नाम व उपनाम की मान्यता व्यवहार में नहीं रही थी बल्कि ‘राठौर’ के नाम की पुरानी जन्मजातीय मान्यता और ‘‘राठौर” उपनाम के पूर्ववत उपयोग को ही व्यवहार में बनाये रखा गया था। समाज में तत्कालीन परिस्थितियों मे, सामाजिक व्यवस्था में, और सामाजिक जीवन में यह परिपाटी सर्वत्र स्वीकार्य, अधिकारिक और सर्वमान्य रही थी और आज भी रहती आ रही है। इसलिये क्षत्रिय राठौर ही,मुख्य धरातल है जो सामाजिक व्यवस्था के सुसम्मत व मान्यता प्राप्त तत्समय से चिरस्थाई है।

”राठौर”  क्षत्रिय जाति अन्य क्षत्रियों में प्रमुख जति है तथा भारतीय इतिहास में इस जाति को अपनी वीरता, सच्चरित्रता, देशभक्ति प्रजावात्सल्यता तथा शासन में कुशलता के कारण सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। भारत में इस जाति के लोग लगभग 100 जिलों में बसे हुऐ हैं। कुछ राठौर, क्षत्रिय से तेली भी बने, यह एक संम्वत् 1191 की एक एतिहासिक घटना है, जिसे भारत विनोद में उल्लेखित ‘‘चालुक्य वंश रतनमाला ’’ प्रथम संस्करण चतुर्थ भाग गुजरात खंड पृष्ठ  संख्या 126  के अनुसार-

ग्यारह सो इक्यानवे, ज्येष्ठ तीज रविवार।

छत्रवट तज तेली हुये, सिद्धराजन्द पवार।।

हुओ न ऐसो नृपति, महि मण्डल के माहिं ||

काम  वर्ष चौबीस हुए, इन मन्दिर के ताहि।।

सिध्दराज जयसिंह नृप, रूद्र महालय कीन्हीं।

अनहलपुर पाटन अमर, कवि जन यश गावहिं।।

प्रबन्ध  चिन्तामणि ग्रन्थ के अनुसार संम्वत् 1139 में गुजरात पट्टन नगर में चालुक्य वंश के प्रसिद्व नरेश जयसिंहसिध्दराज एक बहुत बड़ा मंदिर रूद्रमाल नाम में बनवा रहे थे, जिसका कार्य दिन रात चलाया जा रहा था, क्योंकि राजा को उक्त कार्य को छह महिने के भीतर तैयार कराने की प्रतिज्ञा थी, इसी कारण रात में भी कार्य चलाने के लिये प्रकाश के लिये मशाल जलाने के लिये अधिक तेल की आवश्यकता पडी, तेल निकालने वालों को दिन रात घाणीयां चलाने को जब विवश किया गया तो वे लोग घाणीयां छोडकर भाग गये इनकी निगरानी के लिये कुछ क्षत्रिय राजपूतों को नियुक्त किया था, राजा ने उन्हें आदेश दिया कि तुम्हारी लापरवाही से तेल निकालने भागे हैं, अतः उस रूके हुऐ कार्य को वे स्वयं करें अन्यथा लापरवाही की सजा मिलेगी, इस भय से या जिम्मेदारी के भाव से ,राजा का हुकुम मानकर कुछ क्षत्रिय स्वयं घाणी चलाने लगे, जब कार्य पूरा हुआ तो बिरादरी वालों नें ईर्ष्यावश उनका तिरस्कार किया। राजा ने भी उनकी कोई  मदद नही  की, इस पर उन्होंने हमेंशा के लिये वह नगर छोड़ दिया और आबू चले गये। आबू पहुँचकर इन्होंने पृथक जाति बनाइँ और घाणीयों का कार्य जारी रखा। इनमें कई कुलों के राजपूत थे, अधिक संख्या राठौर राजपूतों की थी। उस समय विवाह  सम्बन्धों में दिक्कत नहीं पड़ी । कालान्तर में इन्होंने अपनी जाति का नाम ही ”राठौर’’ रख लिया। अतः राठौर जाति ,मूलरूप से क्षत्रिय है, इस सत्यता के बहुत से प्रमाण हैं, अनेक लेखकों व इतिहासकारों ने विभिन्न इतिहासों व ग्रंथों की विवेचना से प्रमाणित किया है, अधिक जानकारी के लिये उन ऐतिहासिक ग्रंथ निम्न हैं-

सन्दर्भ-

  1. ’’जाति अन्वेषण’’प्रथम भाग क्षत्रिय वंश प्रदीप।
  2. ”नव मुस्लिम निर्णय’’।
  3. ‘ब्राम्हणोंत्पत्ति मार्तण्ड’ तथा ’जाति भास्कर’ सनातनधर्मी पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र मुरादाबाद द्वारा लिखित।
  1. ‘क्षत्रिय वंशावली’ ठा. उदय नारायण सिंह।
  2. ‘राठौरों का इतिहास ’ पं. विश्वेश्वर नाथ रेऊ।
  3. ‘राजपूत जाति तथा उसकी उत्पत्ति ’ पृष्ठ 321 सौलंकीकृत।
  4. ‘बम्बई गजेटियर’ भाग 1,पृष्ठ 208, 209।
  5. ‘जनरल बंगाल सोसायटी’ सन् 1920, नं. 6, पृष्ठ 276।
  6. ‘ डायरेक्टर आफ पब्लिक इन्स्ट्रक्शन समालिक मगरबी शुमाली-आगरा अवध।
  7. ‘एपिग्राफिया इण्डिया’ भाग 1 पृष्ठ 641, लेखक- मि.रिजले डब्ल्यू.कूकहाल्टन।
  8. ‘हिन्दू फिरका’ पुस्तक मण्डला गजेटियर।
  9. ‘रजम वजम’ उर्दू पुस्तक ( सन् 1920 नवल किशोर प्रेस, लखनऊ)
  10. कर्नल टाड द्वारा लिखित ”राजस्थान’’।
  11. बजरंग लाल लोहिया द्वारा लिखित ’’राजस्थान की जातियाँ।

पिछले राष्ट्रकूटों की कुलदेवी लातना, राष्ट्रस्येना, मनसा या विन्ध्यवासिनी के नाम से प्रसिघ्द है। कहते हैं कि इनकी कुलदेवी ने’’श्येन’’ ( बाज ) का रूप धारणकर इनके राज्य की रक्षा की थी, इसी से उसका नाम’’राष्ट्रश्येना’’ हुआ। मारवाड़ के राठौड़ राजघराने के ”निशान’’ में इसी घटना के स्मारक श्येन (बाज) की आकृति बनी रहती है। राठौड़ों की कुलदेवी ”नागणेचिया ’’ के रूप में मान्यता है।

 

[क्षत्रिय दर्शन एवं अ.भा.रा.क्ष.म.स्मारिका से साभार]